दिल के पास में रहने वाला मित्र Parwaiz बहुत दिनों से नहीं मिला था । कई बार सोचा जाऊं और मिलूं । पास की बिल्डिंग में ही तो है । पर आलस करता रहा । अपने ऑफिस में बैठा था । कुछ सोच रहा था । बहुत दूर देखने की कोशिश कर रहा था । और क्या देखता हूँ कि मित्र सामने दिख रहा है । वही मित्र परवेज़, जो कहता है कि मैं, परवेज़, पटना से आया था । 1989 में । सर, आप से मिला । आप कंप्यूटर इंस्टिट्यूट चलाते थे । आप ने मुझे कंप्यूटर सिखाया । साथ में उठना बैठना सिखाया । चलना सिखाया । और मैं फिर चलता रहा । वही परवेज़ । surprise. अचानक. आँखे मल के देखा. सही में सही । दिल खुश हो गया ।
बातें हुई । बहुत सारी । काम की बात लिखता हूँ ।
पूंछ ही लिया, परवेज़, चलते चलते बहुत चले । क्या लगता है, सफलता मिली ? उत्तर सुनिए । उत्तर में बहुत उत्तर छुपे हैं । परवेज़ ने कहा – सर, मैंने सफलता देखी है । मैं सफलता से मिला हूँ । सफलता मुझे मिली है । मैंने पूछा – कैसे ? परवेज़ – सर आपने ही तो सिखाया था । छोटे छोटे टारगेट सेट करो । टारगेट पूरे करो । सफलता दिखेगी । ख़ुशी मिलेगी । आत्म विश्वास मिलेगा । धीमे धीमे छोटे की परिधि बड़ा करो । और आगे बढ़ो । पैदल से साईकिल, साईकिल से स्कूटर, स्कूटर से कार, यही आपने बताया था, यही मैंने किया । मैं स्तब्ध रह गया । देखता रह गया । आंखे नम हो गई । दिल गदगद हो गया । मन खुश हुआ । गले लगा लिया । शिक्षक का शिष्य सफल हो जाए, उसके लिए इससे बड़ी सफलता दूजी नहीं । जो खोज रहा था वह सामने था । वह सफल था अपने में । मैं सफल था अपने में ।
डॉ. अरुण मिश्र